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जीवन / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

वह भीड़ भरी
जिंदगी
वह कन्धे से कन्धे
छिलते हुये तन
वह उठे हुये भीड़ में चेहरे
वह असंख्य
हिलती हुई
मुंडियां
वे अभावों में
घिरे हुये घर
वह पँक्तियों में
लगी हुई
राशन की दुकानों
पर भीड़
वह जीने के
संघर्ष में की गई
एक एक दौड़
वह सुबह से सांझ तक
कुछ नया कर आने का
पूरा पन
मुझे आज भी भरता है…

वह शिद्दत के बाद
मिली हुई
थोड़ी- सी रहमत
वह ब्याही दुल्हन की
पहली रात का
नया नवेला आभास
वह उम्र भर
एक तार में बंध कर
उम्र भर की
चादर बुन
जाने का भरापन
वे छोटे छोटे
घरों में होने वाले तर्क
वह अधिकार एवं स्नेह
के बीच लड़े हुये
खेलों की तरह
जीत और हार
की अनुभूति
वह बसों में चढ़ते उतरते
भीड़ की रेल-पेल
जीवन को जीने की
पूरी चाहत से
भर देते हैं…

इस सागर की
तरह भरे हुये
पर ठहरे हुये
जीवन
जिस में छोटी-छोटी
मछलियों का
क्रिया-कलाप नहीं
जिस में चांदनी रात में
अनबिछी खाट पर
पढ़े हुए चांद को
साथ-साथ ताकने का
सुख नहीं
जिस में छोटी-छोटी
बातों का नहीं
बड़ी- बड़ी प्रलयों का
अहसास भरा हो
ऐसा सुख अन्दर कहीं
गहरे अभावों से
भर देता है …

धीरे-धीरे
स्वयं फल को
पकते देख कर
जीवन के आगे
बढ़ने का सुख
इन छलांगों के
सुख से
कहीं बड़ा लगता है
आज फिर न जाने क्यों
उन धूल-धूसरित
अपने से चेहरों में
खो जाने
का मन करता है।