जीवन
एक सफ़र अनजाना
मान लिया है जिसे ठिकाना
वह तो एक मुसाफ़िर-खाना
चहल पहल
रहती रातों दिन
लोगों का है आना-जाना
मोह भला क्या तन का इतना
जिसको एक दिवस है मिटना
बदल बदल पट,
तेरा मेरा-
लगा रहेगा आना-जाना
कुछ सत्कर्म नहीं कर पाया
जीवन जिसने व्यर्थ बिताया
देह नहीं
है मिट्टी उसकी,
साँसों का बस आना-जाना