जीवन का मालिन्य आज मैं क्यों धो डालूँ?
उर में संचित कलुषनिधि को क्यों खो डालूँ?
कहाँ, कौन है जिस को है मेरी भी कुछ परवाह-
जिस के उर में मेरी कृतियाँ जगा सकें उत्साह?
विश्व-नगर की गलियों में खोये कुत्ते-सा
झंझा की प्रमत्त गति में उलझे पत्ते-सा
हटो, आज इस घृणा-पात्र को जाने भी दो टूट-
भव-बन्धन से साभिमान ही पा लेने दो छूट!
दिल्ली जेल, 23 अक्टूबर, 1932