जीवन रेखा का एक छोर
जन्म
और दूसरा छोर
मृत्यु
दोनों सिरों के बीच,
ज़िंदगी का
पैण्डुलम डोलता है
जिसे हम
धर्म, राष्ट्र, भाषा, जाति और संस्कृति
के नाम की
चाबी घुमा धुमा कर
गति देते..
हज़ारों साल पुरानी इस चाबी में
जंग लगा है.
अब जीवन भी
रोगग्रस्त है.
क्या कोई
इस चाबी को
बदलेगा??