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जीवन की भाषा / गोबिन्द प्रसाद


तुम अभी उधार की
आधुनिकता पर रेंग रहे हो
और वह;पानी की गद्दर सूखी रोटियों के लिए
धरती और आसमान के बीच
कमान-सा झुका हुआ
प्रत्यंचा से छूटने की प्रतीक्षा में
चित्रित-लिखित-सा रह गया है

बार-बार
एक ही स्वप्न देखता हूँ
मैं- तुम्हारी आँखों में
कि उस मज़दूर की कुदाल
टोकरे ढोती हुई औरतें और बच्चे
धूप के साये में
ग़र्द के कपड़ों में लिपटे
कब तुम्हारे कैमरे की तस्वीर बनेंगे
आईने के सामने कब खड़े होंगे
कब बोलेंगे तुम्हारी कविताओं में
जीवन की भाषा

लगातार मैं यही स्वप्न देखता हूँ
तपते हुए खण्डहरों की दुपहरी में
पसरे हुए दिन के सूने उजालों में
उन की साँसों में ढलते हुए सन्तों के गान में

लेकिन यह स्वप्न यहीं ख़त्म नहीं हो जाता
दरअस्ल; स्वप्न-पर-स्वप्न
टूटने के स्तर पर जीने का सलीक़ा है

बच्चे अब और ज़्यादा दिनों तक
तुम्हारे ड्राईंग रूप में पुतलों की तरह नहीं रह सकते
कमान से झुके कुदाल चलाते मज़दूर
और टोकरे ढोती हुई औरतें
’स्कैच बुक’ में बंद नहीं रहेंगी
और न ही उन के पसीने की गंध
काग़ज़ी फूलों की तरह गुलदस्तों में क़ैद रहेंगी

कुछ लोगों को
अपनी विज्ञापन सी मुस्कानों के छिनने का ख़तरा बराबर सता रहा है
यही वक़्त है जब हम
ड्राईंग रूम के शीशों में क़ैद
मज़दूरों के बच्चों को आजाद करें
हम में से कुछ लोगों की आँखें हकलाने लगी हैं
और ज़बान साफ़-साफ़
भविष्य का नक़्शा देखने लगी हैं
शायद यही वक़्त है जब
उन मज़दूरों के होठों पर खारे पसीने की गंध को
अपनी आँखों से छू कर कविता को
छन्दों से मुक्त करें

लेकिन तुम जब तक कोई रंग चुनोगे
उनकी धुमैली आँखें शायद इस बार
शून्य नहीं तलाशेंगी
जब तक तुम कोई छंद रचोगे
वे कविता को
शब्दों की नोक पर रख कर गाड़ चुके होंगे