सूखा तन-मन, तृप्त जीवन अब तो सावन बन बरसो।
अंगार सा दहक रहे मन को प्यार भरे मेघों से सरसो।
स्नेह सिंचन कर सूखे मेरे उपवन की कली-कली को हरसो।
आज उजड़ा है उपवन मेरा, सूखे हैं सारे विटप-तृण।
अम्बु कण से सींच फिर हरे दूब सा कर दो मेरा जीवन।
बन समेघ गगन, फिर खिला दो मन में उम्मीदों का चमन।
छंदों के इस पतझड़ में सूखी है गीतों की रसधार।
विकल, विह्वल कविता मेरी आज कल्पना को रही पुकार।
घन घोर घटा बन बरसो, मेरा जीवन अब दो सँवार।
निरभ्र आकाश में घटा बन छाने में क्यों कर रही देरी।
तृश्णा और जागी जब पुरवाई बन तुने तन पर हाथें फेरी।
बरसा कर प्रेम पीयूश तृप्त करो जीवन भर की तृश्णा मेरी।
तुम और नहीं कोई, धरा के हर जीवन का सार हो।
हर जीवन की रसता, प्रकृति का तुम ही आधार हो।
हर कविता की कल्पना तुम, गीतों में बहने वाली रसधार हो।
भव-सागर पार उतारने वाली नैया की पतवार हो।
प्रकृति में हर गीत-संगीत की तुम ही एक सृजनकार हो।