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जीवन नुपुर / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

अपनापन अब कहाँ प्रचुर है?
खनक हीन जीवन नूपुर है।

कर्तव्यों की भंग हुई लय,
मुखर स्वार्थपरता का सुर है।

कुहरिल कुहरिल हुई दिशाएँ,
धुँआ धुँआ-सा अन्तःपुर है।

जीवन का सर्वोच्च ज्ञान तो
सिखलाता अनुभव का गुर है।

प्राण कभी बिछड़ा था जिनसे,
उनसे मिलने को आतुर है।

मेरा कोई दोष न, फिर क्यों
दृष्टि तुम्हारी ध्वंसातुर है?

डरे छिपे वरदाता जन है,
नेता नेता भस्मासुर हैं।