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जीवन नैया / जितेंद्र मोहन पंत

सागर में तूफान है आया
भव—प्रलय विनाश है गोया
हिचकोलें भरती नैया को,
कैसे करके पतवारूं?
कैसे छोर लगाऊं?

सन्—सन् करता भयाक्रांतक स्वर,
लहरों के जल से भरता तल,
विचलित होते मन कर्ण को ,
कैसे करके सहलाऊं?
कैसे नाव बचाऊं?

जीवन—मरण का यह संक्रमण पल,
आभासित होता है दीर्घतम,
असहय होते इस क्षण को,
कैसे करके बिताऊं?
कैसे मन को लगाऊं?