रोग बहुत हैं
लेकिन उनका कहीं निदान नहीं ।
ये कैसी अनहोनी
जीवन विष पीते बीता
उमर बढ़ें हर रोज़
मगर ये अश्रु-पात्र रीता
चलते हुए
सभी लगते पर हैं गतिमान नहीं !
आशा की नैया को
मन के सागर ने लूटा
बीच धार का नाविक
थका, किनारे का टूटा
संकल्पों की
फ़सल उगाकर बने महान नहीं !
चेहरा-मोहरा देख
रोटियाँ मुँह तक हैं आतीं,
छोटा-सा है दीप
आंँधियाँ तेज़ बढ़ी जातीं
अगड़े-पिछड़े
हुए बराबर दिखे समान नहीं !
रहे किरायेदार सदा से
हम तन के घर में
ज़ख़्मी पंछी उड़ता है
परवाज़ लिए पर में
पूरा देश
हमारा घर, पर एक मकान नहीं !