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जीवन संवाद / नीलोत्पल

मैं जीवन को इतने क़रीब से जानता हूं
जहां दो पेड़ों का फ़ासला बना हुआ है बराबर
और मैं लगातार इनके बीच दौड़ता हुआ
आता हूं सम्मुख तुम्हारे
यह किताब की तरह बिलकुल नहीं है
जहां पन्ने बिखरते रहें या किसी और तरह की आवाज़
कानों में गिरती हो
यह दूसरी बात है जहां
स्कूल का आखरी टोला बजते ही
बच्चे छूटते हैं अपनी दुनिया में गुम हो जाने के लिए
  
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मैं आरम्भ और अंत के बीच सुनता हूं
जीवन का संवाद
जहां मैंने तमाम लापरवाहियों के बाद जाना
किसी बात का कोई छोर नहीं
जो जहां थाम लें, बस वे उलझे सवाल
जो हमनें नहीं किए
उन्हें हल करना है
किसी तरह यह बात साफ़ होगी
हमने अपने न होने को पराजित ही किया
आख़िरकार

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बिजली के नंगे तारों पर उतरती चिड़ियां
नहीं कहतीं वे डरी हुई हैं
एक पेड़ से दूसरे पेड़ छलांग लगाता बंदर
नहीं जानता फ़ासला कितना है पेडों के दरमिय़ान

लेकिन आदमी कहता है, टोकता है ख़ुद को
उसे याद नहीं
पिछली बार जब वह दोहराता जा रहा था
अपनी गलतियां, ज़्ाबानें, तज़ुर्बें

वह चूकता है, धंसता है
वह हारकर खड़ा होता है
उसे याद नहीं रहता
उसकी शुरूआत पिछले किए गए
तमाम की शुरूआत नहीं है
अब उसे फिर से बसाने हैं
अपने गतिशील रास्ते


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धीमे-धीमे
मौत आती है नजदीक

धीमे-धीमे
हम बात करते हैं

धीमे-धीमे
हम जानते हैं एक-दूसरे को

कोई रहस्य, कोई बात अधूरी नहीं तब

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मैं कितना कुछ जानता था अपने भ्रम में .....
हर वाक्य की समाप्ति पर
मैं ख़ामोश खड़ा देखता
मेरे पास नहीं रहे अब वे सिलसिलं
जिन्हें मैं कहना चाहता हूं

मैं कितना कुछ नहीं जानता