Last modified on 20 जुलाई 2014, at 01:48

जुगनू-सा पानी / बुद्धिनाथ मिश्र

जीवन के हर पोर-पोर पर
नाच रहा जुगनू-सा पानी ।

निकले संकल्पों के अंकुर
तोड़ वर्जना की दीवारें
लेकर शुभ-संदेश उड़ रहे
नभ के वायस पंख पसारे ।
भींगे तप्त प्राण वर्षों के
महके स्वप्न विजन मरुथल में
ये अमोल मोतियाँ समेटूँ
मैं अपने रीते आँचल में ।

स्वप्निल इन्द्रधनुष पर झूलेगी
मेरी साधना सयानी ।

लोकगीत की बिरहिन बाँधे
पंखों में संदेश पवन के
पैरों में बिजलियाँ बाँध कर
नाचे परियाँ द्वार गगन के ।
रोम-रोम व्याकुल होता
तन जब समीर के झोंके परसे
जैसे किसी सुनहरी ग्रीवा पर
उछ्वास पिया के बरसे ।

झूम रही तापसी अपर्णा
पहने आज चुनरिया धानी ।

गगरी फूटी क्या रसवन्ती की
उस स्वर्गंगा के तट पर
या कान्हा ने कंकड़ फेंका
किसी गोपिका के मधुघट पर ।
कितना प्राणवन्त हाला है
राधे, तेरी आज न जाने
छिगुनी से छींटों जिस पर
उठकर लगता बाँसुरी बजाने ।

धुलकर और चमकती
रेखांकित यक्षों की प्रेम-कहानी ।

गूँज रही धरती से अम्बर
पावस की उन्मुक्त रागिनी
तरल पुष्प के शर बरसाती
लुक-छिपकर घन की सुहागिनी ।
मन का मृग भर रहा कुलाँचें
लुप्त हुई मृगतृष्णा जग की
पंकिल खेतों की मेड़ों पर
बढ़ी नीलिमा बहकी-बहकी ।

कैसे पथिक चले निर्भय हो
डूबी पगडंडी अनजानी ।

आर्द्र-अम्बरा ‘वृक्षपरी’ के
किसलय-से अरुणाधर फड़के
आहत-उर भुजंगिनी सरि के
दोनों कोर प्रणय की छलके ।
वशीकरण के यन्त्र मनोहर
कीलित मेंहदी से हाथों पर
मुखर हुई सर्जना-सुरभि
निर्माता के मृदु आघातों पर ।

मैं बनता बादल राजा
यदि कोई बनती बिजली रानी ।