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जुगनू सुख / रेखा

सूरज
     झुक आया था जब
     माथे पर
     आशीर्वाद की तरह
     कौन जाने क्यों
     हो नहीं पाई थी वह
     स्वयं सूरज...
किरण-किरण कुरेदती रही
कालिख जो जन्मों से
जम रही थी इर्द-गिर्द
लोहा हो गया स्वयं पारस
ठीकरा हो गईं कांचन-किरणें
     नहीं टूट पाया
 कालिख का किला

अकलुष कुंती नहीं थी वह
जो तर जाता कर्ण बन सूरज
स्वयं उसकी कोख में

तर्क ने तर्जनी उठाई
बुद्धि के नाग फुफकारे
रोशनी भी जब आएगी बहार
कोख के अँधेरे से
काले टीके-सा अँधेरा
माथे पर अंकित होगा
कहाँ होंगे आस्था के कवच-कुँडल
बचा लें जो उसके मानस-पुत्र को

कुंती बैठी है आज
चौराहे पर आँचल बिछाए
सूरज का बोना बिंब
उछलता है चाँदी के सिक्के सा
फिसलकर आँचल के छिद्रों से
गिर पड़ता है गंदे नाले में

जब लौटा है
आशीर्वाद की तरह झुका
सूरज
रोशनी बींधती रहती है
अंधेरे में खुलती हैं आँखें
जुगनू-जुगनू टूट
जाता है
सुख का अखंड सूरज
टिमटिमाता सुख का भ्रम
भरमाता है
कभी इस कोने
कभी उस कोने
भींच लेती है बंजर मुट्ठियों में
ठंडी चिंगारियाँ
जहाँ भी छूते हैं हाथ
उड़ती हुई रोशनी
काली हो जाती है
और जुगनू-सुख
कीड़े-सा कोंचता है।