(पंडित शिवकुमार शर्मा और उस्ताद शफ़ात अहमद खान की संतूर और तबले पर जुगलबंदी से प्रेरित)
यह कविता साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में
कथित रूप से घटित घटना के बारे में है
वह दुर्घटना जिसके बारे में कहा जाता है कि
थी वह एक काला इतिहास
एक गहरा धब्बा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर
सन् 2002 के किसी मनहूस दिन गोधरा में ।
पढ़ता हूं फोरेन्सिक विज्ञान प्रयोगशाला, अहमदाबाद की
रिपोर्ट क्रमांक 2 संदर्भ सी. आर. 9/2002 गोधरा रेलवे पुलिस स्टेशन...
मौके पर की गई जांच जिसमें दर्ज़ है पिघला हुआ लोहा, एल्यूमीनियम
उनसठ लोगों की राख का ढेर
और उसमें दबी हुई चिन्गारी
जिसने जन्म दिया था गुजरात के दावानल को।
बहुत से तथ्य, निष्कर्ष और अनुमान दर्ज़ हैं उस रिपोर्ट में
कि 60 लीटर अतिज्वलनशील तरल पदार्थ आया होगा कहां से...
कोच के पूर्वी भाग से पश्चिम की तरफ फैली होंगी लपटें
किस तरह झुलसे होंगे आदमी, औरतें और बच्चे...
रिपोर्ट में दर्ज़ है यह सब।
लेकिन जो दर्ज़ नहीं है ......वो एक तथ्य
जो रहा ओझल मीडिया की लपलपाती आंखों से
नज़रअंदाज हुआ जो प्रत्यक्षदर्शियों से
जो चूक गया गहन वैज्ञानिक परीक्षणों से भी
यह कविता साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में उस दिन
दर्ज़ किया गया वही तथ्य है......
उस दिन दो यात्री और चढ़े थे उस बोगी में अलस्सुबह
और कुल जमा पचास मिनट पच्चीस सैकण्ड की
एक अभूतपूर्व जुगलबंदी हुई थी वहां स्वर और थाप की!
एक थे पंडित शिवकुमार शर्मा
जिन्होंने खचाखच भरी बोगी में
निकालकर संतूर छेड़ दिया था राग कलावती......
सा नि सा प ध सा नि सा
सा ग रे रे ग रे ग प ग प ग रे
नि सा सा सा नि सा ध नि सा सा ग प ध प ग रे रे
नि सा ग रे नि सा नि ध प ध नि प नि सां
.....यह आलाप था.... रचना विलंबित लय रूपक ताल.....
स्ट्राइकर्स से थिरक रहा था
संतूर का एक-एक तार
थम गया था शोर डिब्बे का और सांस रोक कर
सुना जा रहा था स्वर-लहरियों को
पंडित शिवकुमार शर्मा जिनके बाल यूं ही नहीं घुंघराए थे जन्मजात
वह किसी छेड़े गये राग की संगत थी
कभी-कभार उठाते अपना सिर झटका देकर
और इस बहाने खोजते आसपास जमा स्तब्ध भीड़ में कुछ
था तो सब पूरा-पूरा लेकिन फिर भी लग रहा अधूरा.....
एक आगाज़ था..... एक शुभारंभ..... एक सूर्योदय
जिसकी पहली-पहली केसरिया किरणें
बल खा रही थीं झंकृत होकर समूचे डिब्बे में!
सा नि नि सा प नि ध नि नि प नि सा
तभी ठीक 14 मिनट 43 सैकण्ड बाद
प्रकट हुआ वह दूसरा यात्री
मुस्कराते हुए एक देवदूत की तरह
उस्ताद शफ़ात अहमद खान ……
खेल रहे थे मानो छुपा-छाई
कि देखें बच्चू कितना बजा लेते हो बगैर मेरे!!
निकाले तबले कपड़े के बैग से और
बगैर ठोंक-पीट के शुरू हो गई उंगलियां……
ति ति ना धी ना धी ना
ति ति नाना धीधी नाना धीधी नाना
ति ति नाना धध तिरकिट धध तिरकिट
ति ति नाना धध तिरकिट धध तिरकिट
ग प ग रे प नि ध ध प ग प ग रे नि सा
ति ति नाना धिधी नाना धीधी नाना
एक सुहागन जो भूली मांग भरना की सूनी मांग में
बिछ गई थी सूरज की सारी लालिमा
और दीप्त हो उठा चेहरा कलावती का एक अपरिभाषित गरिमा में
यह पहली जुगलबंदी थी संतूर और तबले की
ठीक पच्चीस मिनट बीस सैकण्ड बाद जब थमी उंगलियां
तब भी जारी थीं स्वर-लहरियां होकर परावर्तित
दीवारों और छत से डिब्बे की……
लौट रही होकर दुगनी ……पैठ चुकी थी
हर हृदय…… हर मस्तिष्क में !
चूंकि इस समय संसार का सबसे अलौकिक स्थल था एस-6
चूंकि वह नहीं था बाज़ार
इसलिये कमर्शियल ब्रेक नहीं था
शुरू हो गया संवाद फिर उंगलियों की भाषा में
सा ग प ध ग प ध प नि
ध प ग प ध प ग रे ग प
ध प नि प ग प ध प
ग रे नि सा ग रे प ग रे ग प नि ध प
धिन धिन धागे तिरकिट तूना कत्ता धागे तिरकिट धीना
धिन धिन धागे तिरकिट तूना कत्ता धागे तिरकिट धीना
ग प नि ध प ग प नि ध प ग प नि ध प
राग था कलावती ही…… रचना मध्य लय एक ताल
कोई नहीं जानता था पूर्णत्व की परिभाषा
मगर सब महसूस रहे थे कि हां ……यही है……शायद……
शायद नहीं….… बिल्कुल यही…… शत प्रतिशत!
राग कलावती…… मध्य लय एक ताल……
छेड़ रखा था पंडित शिवकुमार शर्मा ने
जो पैदा हुए जम्मू में
रचाया संगीत अपनी शिराओं में पांच वर्ष की उम्र से ही
अपने पिता पंडित उमादत्त शर्मा
और गुरु बनारस के पंडित बड़े रामदासजी की छांह में !
संतूर के साथ वह अकेला योद्धा
लड़ता रहा संगीत के पंडों और उनके दम्भ से
……इट वाज़ एन इन्टेन्सिव लोनली बैटल
अगेन्स्ट द रिजिड ऑर्थोडॉक्सी विच हैड डिक्लेयर्ड
संतूर ऐज़ टोटली अनसूटेबल टू द डिमांड ऑफ इंडियन क्लासिकल म्यूज़िक
……किसी ने कहा था!
टकराती है आंखें अचानक दोनों उस्तादों की
भरी हुई कूट भाषा से
भरने लगती है चौकड़ी कलावती
द्रुत लय तीन ताल में 16 मात्राओं के साथ
ग प सां नि ध प
प सां नि ध प ग प सां नि प
ग प नि ध सां प नि सां
ग प सां नि प ग प ग प सां
ध धिन धिन ध, ध धिन धिन ध, ध तिन तिन ता, ता धिन धिन ध
ना धिन धिन ना, ना धिन धिन ना, ना तिन तिन ना, ता धिन धिन ना
साबरमती भी क्या दौड़ रही थी
कभी तेज़ तो कभी धीमी……
कभी मध्य तो कभी द्रुत लय में
संगत बिठाती स्वरों से जो गूंज रहे थे एस-6 कोच में
पटरियां बदलते वक्त हो जाती धीमी
आवाज़ कम-से-कम कि टूटे न लय इस जुगलबंदी की !
बेसुध् थे यात्री उस कोच के
सूरदास की गोपियों की तरह
बीडीयां बुझ चुकी थीं कब की
सूख चुकी थीं पूडियां हाथों में ही
दुबक गई थी अचार की गंध एक कोने में
मांएं भूलीं ढांपना उघड़े स्तन अपने
और बच्चे छोड़कर दूध
स्वर-लोरियों के सहारे डूब चुके थे गहरी नींद में……!
अठारह मिनट पैंतालीस सैकण्ड की इस दूसरी जुगलबंदी के बाद
फिर हुआ इशारा दोनों के बीच
और बगैर अंतराल के मुड़ गई दिशा स्वर लहरियों की
रचना मिश्र खमाज…… ठुमरी अंग…… दादरा ताल……!
प ध म प ग प ध म प ग
म ध नि प नि सां नि ध ध प
धक्क धिना धिन ताक्क धिना धिन
धक्क धिना धिन ताक्क धिना धिन
साबरमती एक्सप्रेस का एस-6 कोच साक्षी था
उस अलौकिक सम्मोहन का
जब मरा हुआ चाम हो उठता है जीवित दूसरे चाम के स्पर्श से
उस्ताद शफ़ात अहमद खान……
दिल्ली घराने के कलाकार……
जिन्होंने सीखा संगीत अपने पिता एवं गुरु
छम्मा खान से
जो सिद्धहस्त थे बजाने में
चाटी का बाज…… परम्परा 18 वीं शताब्दी की जिसे रखा जीवित
इस उस्ताद ने तमाम उपेक्षाओं के बावजूद !
जुगलबंदी नहीं यह प्रार्थना थी दरअसल
कि लहलहा उठें मुरझाई फसलें
बहने लगें झरने सदियों से सूखे
भर जाएं उजास से अंधेरी सुरंगें दुनिया की
स्पंदन होने लगे पत्थरों में ।
चरम पर जब पहुंची जुगलबंदी
आंखें मुंदी और प्रार्थना में उठे हुए थे हाथ
अल्लाह ने ले लिया था सभी को अपने अमान में
देवता बरसा रहे थे फूल आकाश से एस-6 कोच पर
उन फूलों का भी ज़िक्र नहीं हैं फोरेन्सिक रिपोर्ट में !
चलती रही जुगलबंदी
समय भी था भौंचक रुका हुआ एक जगह
कि आखिर कौन कर रहा है किसकी संगत !!
यह एक काफिर और एक म्लेच्छ की जुगलबंदी थी……
जो दुनिया को एक लय में बांध लेना चाहती थी
यह जुगलबंदी एक विस्तार था उन जुगलबंदियों का……
जो खेतों-कारखानों में पसीना बहाते
पत्थर तोड़ते - मकान बनाते
क्रिकेट और हॉकी खेलते
या विवाह के मंत्रोच्चार के बीच शहनाई बजाते उस्ताद बिस्मिल्ला खान द्वारा
की जाती है ।
जुगलबंदी जो इकबाल नारायण जैसे नामों
शहंशाह अकबर के साम्राज्य
शरद जोशी, नासिरा शर्मा, अमजद अली खां और शाहरुख खान
जैसे लोगों के घरों
और अलगू चौधरी-जुम्मन शेख के
प्रगाढ़ आलिंगन में मौजूद होती है ।
तभी रुकी ट्रेन झटके से……
स्वर लहरियों ने खामोश कर दिये थे उन्मादी नारे
उतर गये दोनों योद्धा साथी गलबहियां करते
पंडित शिवकुमार शर्मा और उस्ताद शफ़ात अहमद खान
अपने हथियारों समेत
चीर कर भीड़ को करते हुए गर्जना
`नासमझो ! यह जुगलबंदी का देश है !!´
(अब क्या इसके बाद यह कहने की ज़रूरत है
इस कविता में
……कि थम गई थी भीड़ वहीं
और फेंक दिया गया था अतिज्वलनशील तरल पदार्थ
वहीं कहीं झाडियों में
……कि फरवरी 2002 की सत्ताईस तारीख को
साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में
नहीं हुआ था कोई हादसा
……कि फोरेन्सिक विज्ञान प्रयोगशाला, अहमदाबाद की
रिपोर्ट क्रमांक 2 सी आर नम्बर 9/2002 में दर्ज़ निष्कर्ष
दरअसल किसी भयानक दु:स्वप्न के हैं
दु:स्वप्न जिसे देखने के लिये अभिशप्त थे
दुनिया के तमाम लोग एक साथ
और जिसने जन्म दिया दु:स्वप्नों की एक श्रृंखला को
……कि लय, ताल, प्रेम और आनंद से ठसाठस भरी उस तरल बोगी में
जगह कहां थी किसी लपट की !!
……कि यह दु:स्वप्न एक महान रचना में प्रक्षिप्त ऐसा क्षेपक है
जिसका कोई सम्बन्ध नहीं होता मूल पाण्डुलिपि से !!)
(इस कविता के सांगीतिक पक्ष में श्री प्रवीण बिरथरे, श्री सुरेन्द्र तिवारी, आकाशवाणी, गुना एवं प्रो एच. ए. खान का सहयोग रहा)