तुम गए बुआई के बाद
और मैं भूल गई गेंहूँ उग रहा है
बैलों को भूख लगती है
तो सांकल खोल देती हूँ
बच्चे आते हैं
भूँजती ही रहती हैं बालियाँ पूरी शाम
मींड-मींड उन्हें फांकते रहेंगे मस्त गाँव के छुट्टन
घोंसले गुनती हुई
दूर-अन्दाज़
चिड़ियाँ भी इसी जगह उतरती हैं
पीढ़ियों तक उनके अण्डों में
दर्ज रहेगी मेरे खेत की निडरता
अब उत्सवी हो रही हैं बालियाँ
लबालब पके हुए हैं परिन्दों के सुर
सुनती हूँ इतना
और याद रहता है
फिर बरसने लगता है आसमान
कीचड़ में घोपते हुए पाँव
मेरे होशगुम भाई भागते हैं
बारिश पर थूकते हुए
अधबनी कुठरियों के अनाजों की ओर
कुरलाते और भागते हैं
अचरज है तुम नहीं हो
तब भी इतना तो जान पाती हूँ
जान पाती हूँ
लेकिन सपना सोख लेता है हर बार
इस बरस
अनाज के साथ
मेरा जानना भी डूब जाता है
लोग आते हैं
दवार को धकियाते पागल फकीरों के हुजूम से
उनकी बाँहें अजाने अनाजों से भरी हैं
वे सीले पूसों को
अफ़सोस की तरह मेरी गोद में डाल देते हैं
मैं देखती हूँ
बावेर से बंधी बालियों में
लेट गए हैं दाने
मिटटी ने उन्हें बीज समझ
एक बार फिर हरिया दिया है
कुवेली बरसात में
दानों का दोहरा फूट कर निकलना
तुम्हारे जाने के बाद का मौसम है
मैं नहीं जानती
बाहर
मेरे भाइयों का रुदन किसलिए है