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जूही फूलों की महक / अमरेन्द्र

जूही फूलों की महक आहट लिए
तुम तो आए थे ही, मैं ही सो रहा था।

मैं नहीं तब जानता था, गीत का मन
चाँदनी से है बना, इस प्रीत का मन
तुम तो हौले से हँसे थे, पास आकर
पर कहाँ इसका पता मुझको रहा था।

रूप का जादू खिला था, रूपवन में
बाँध कर सम्मोहनों का दल नयन में
तुम सुधा की धार बनकर सामने थे
प्यास से मैं ही न परिचित हो रहा था।

जब खुली आँखें, धुले थे सारे उबटन
गा रही थी सिसकियों में हवा समदन
फूल कुछ हाथों में थे सूखे हुए
और मैं बेबस बना-सा रो रहा था।