जेठ लगता आज फागुन,
दिन हुए हैं आम-जामुन ।
रेत का तन तप्त लेकिन
मल्लिका की याद मन में,
भष्म की चादर चढ़ाए
मानसर के धवल वन में;
उड़ रही चिनगारियां हैं
केतकी को साथ लेकर,
रंग चम्पा का उड़ा-सा
कुछ शिरीष की बात लेकर;
मुस्कराता है मलय-सा
द्वार पर अवधूत सागुन !
राज में तृणराज के भी
वंश तृण के हैं जले-से,
रात भर रोती नदी है
रेत के लग कर गले से;
दूर से ही देख कर यह
भीगता आषाढ़ चुपचुप,
क्या हुई बातें न जाने
नभ-धरा में मौन गुपचुप;
मोहता है सूर्य तपता
ज्यों शिशिर में तेज आगुन।