जेनी ! दिक करने को तुम पूछ सकती हो
सबोधित करता हूँ गीत क्यों जेनी को
जबकि तुम्हारी ही ख़ातिर होती मेरी धड़कन तेज़
जबकि कलपते हैं बस तुम्हारे लिए मेरे गीत
जबकि तुम, बस तुम्हीं, उन्हें उड़ान दे पाती हो
जबकि हर अक्षर से फूटता हो तुम्हारा नाम
जबकि स्वर-स्वर को देती हो माधुर्य तुम्हीं
जबकि साँस-साँस निछावर हो अपनी देवी पर !
इसलिए कि अद्भुत्त मिठास से पगा है यह प्यारा नाम
और कहती है कितना-कुछ मुझसे उसकी लयकारियाँ
इतनी परिपूर्ण, इतनी सुरीली उसकी ध्वनियाँ
ठीक वैसे, जैसे कहीं दूर, आत्माओं की गूँजती स्वर-वलियाँ
मानो कोई विस्मयजनक अलौकिक सत्तानुभूति
मानो राग कोई स्वर्ण-तारों के सितार पर !
रचनाकाल : 1836
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सोमदत्त