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जोग बिजोग / सपना भट्ट

प्रेम में इतना भर ही रुके रस्ता
कि ज़रा लम्बी राह लेकर
सर झटक कर, निकला जा सके काम पर।

मन टूटे तो टूटे, देह न टूटे
कि निपटाए जा सकें
भीतर बाहर के सारे काम।

इतनी भर जगे आंच
कि छाती में दबी अगन
चूल्हे में धधकती रहे
उतरती रहें सौंधी रोटियाँ
छुटकी की दाल भात की कटोरी खाली न रहे।

इतने भर ही बहें आँसू
कि लोग एकबार में ही यकीन कर लें
आँख में तिनके के गिरने जैसे अटपटे झूठ का।

इतनी ही पीड़ाएँ झोली में डालना ईश्वर!
कि बच्चे भूखे रहें, न पति अतृप्त!

सिरहाने कोई किताब रहे
कोई पुकारे तो
चेहरा ढकने की सहूलत रहे।

बस इतनी भर छूट दे प्रेम
कि जोग बिजोग की बातें
जीवन में न उतर आएँ।

गंगा बहती रहे
घर संसार चलता रहे।