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जोड़ों का दर्द / विनोद दास

सत्तर साल से चलते-चलते
जोड़ों की हड्डियाँ खटखट करने लगी हैं
घुटने बताते रहते हैं अपना दर्द
हम सुनते नहीं
उनके बीच की सूख गई है स्निग्धता
पाँव आगे बढ़ते ही
दर्द की करुण कराह निकलती है
जैसे हड्डियाँ वृद्धाश्रम में
बन्द दरवाज़े के भीतर सुबक रही हों

मत हंसिए
उम्र की साँझ में
कोई करिश्मा काम नहीं करता
बुरे विचार की तरह
टखनों को जकड़े रखता है दर्द

जहाँ जोड़ होते हैं
समय की रगड़ के साथ
वहाँ दर्द होता ही है
चाहे कुहनी हो या घुटने
चाहे दाम्पत्य हो या दोस्ती
कश्मीर हो
या अरुणाचल प्रदेश

तकलीफ़ और दर्द के बीच होता है रिश्ता
मौत और मौन की तरह

मेरा दर्द असली
तुम्हारा नक़ली
यह बहस का विषय नहीं हो सकता

हर दर्द एक सा नहीं होता
बुढ़ापे में टख़नों का दर्द
और जवानी में पैलेटगन से घायल होने के दर्द में फ़र्क है
एक माँ की जचगी का दर्द
और माँ के एक जवान बच्चे के लापता होने का दर्द अलग है

मसलन बुढ़ापे में बिस्तर पर पकी उम्र में साँस रुकना
या सड़क पर बर्बर भीड़ से घिर कर मरना एक सा नहीं है

दर्द राजनीतिक नहीं होता
यह कहना भी एक गहरी साज़िश है
कोई दर्द आत्मा के गुर्दे में पथरी की तरह चुभता रहता है
कोई दर्द सुन्न पड़ा रहता है जैसे ऑपरेशन टेबल पर लेटा आदमी
और कोहराम भी नहीं होता

दर्द की भाषा सीधी और सरल होती है
आंसू उसे पढ़ लेते हैं
सिर्फ वे ही मनुष्य नहीं पढ़ पाते
जो जब करुणा पर कक्षा चल रही थी
पीछे के दरवाज़े से बाहर निकल गए थे ।