जो कुछ भी कहना है
कह लो
तेज़ाबों से भरी नदी में
बनकर नाव ताव से टहलो
मौसम की
खुलती पाँखों में
चिड़िया की विस्मित
आँखों से
लेना है
तो नई सुबह लो
पिघली
बर्फ़ हुई खामोशी
जो हर घर है
गई परोसी
जितनी
सहन-शक्ति है
सह लो
टूटें उपनिवेश के बंधन
लौटे गीतों का
भोलापन
माचिस की तीली-सा
जल लो