दर्ज़ नहीं स्मृतियों में
झड़ गये जीवन के वे दिन
उदास विभावरी के पल्लू में
बाँध गये अफ़सोस अनगिन
चले गये कुछ ऐसे वे
अपने लोगों जैसे वे
यादों में रह गये
डाल से गिरते दल वे
जैसे बजती धुन खो जाती
अनसुनी आवृत्तियों में
हेर-हेर कर बुद्धि थक जाती
स्मृति की धारियों में
मैंने ख़ुद को रचा था
चुन चुनकर स्मृति रेखाएँ
सत्य से जन्मा अरे निर्वात ने
तोड़ी सारी भ्रम सीमाएँ
ख़त्म मेरा समय होगा
मेरी रची कहानी के साथ
मेरी भावनाओं के घेरे में
आयी उस आज़ादी के साथ
मेरे इस अंतिम समय में
कैसी ज्योस्त्ना रही उतर
जैसे शाम होते न होते
धरा छोड़ती सूर्य-किरण
कहना मुश्किल है
पहले मैं या हुए तुम
तुम्हारे होने से मैं हूँ
या फिर मेरे होने से तुम
पर रहेगा वही हमेशा
जो नहीं मेरा था
वही प्यार, वह जीवन भी
जिसमें मैं नहीं था
-0-