ये जो विचार है
क्या देगा जन्म
किसी सरोकार को
या यूँ ही गुजर जाएगा
बिन बरसे बादल की तरह
डर है
आशंका उसकी
जो हो भी सकता है
और नहीं भी
परन्तु डर
तो हो जाता है
और फिर बना रहता है
कुछ यूँ कि
होती है चिंता
डर की
बस डर की
वह अनजाना-सा डर
जो अकरण ही
बचपन में
बैठ गया कुंडली मार पेट के गड्ढे में
करता रहा है यात्राएँ साथ-साथ
जब चाहता है
उठा लेता है फन
बादल जो बरसता नहीं
है दुःख
या चिंता
रहता है वहीं
आकाश में टँगा
पोशाकें बदल
बन-ठनकर चलने
बेफिक्र हँसी हँसने से
क्या हो जाता है बचाव?
उस सबसे
जो है यहाँ