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ज्योतिर्मय को / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

माटी का दीपक दे-
तुम तो निश्चिन्त हुए;
यों न करो!

घन-से झुक सरस, सदय-
भावों का मृदु मधुमय-
लहराता-
स्नेह भरो!

स्नेह-विभा हो पावन;
रूपान्तर का साधन-
प्राणों की
बात धरो!

तिल-तिल यह बात जले,
स्वर्णिम आलोक ढले;
मेरा-
अस्तित्व वरो!

चेतनता की विरहिन,
रोती है तारे गिन,
चुम्बन ले-
शोक हरो!

लो, कवि का मन खोल दिखाऊँ!

लो, कवि का मन खोल दिखाऊँ!
अन्तर्जग की रंग-बिरंगी निधियाँ लो अनमोल दिखाऊँ!