ज्योति के पावन समर्पण
का, विलम्बित छन्द हूँ मैं !
देह में द्वापर तपिश है
गेह से निर्द्वन्द्व हूँ मैं !
यह तपिश, तप के किनारे
हाथ फैलाए खड़ी है
सिन्धु सामन्ती उछालों में
अतल तक हड़बड़ी है
सिन्धु से आकाश तक
स्वच्छन्द हूँ, लयबन्ध हूँ मैं !
एक अन्धियारा समय का
रात काली कर रहा है,
रात है यह ध्यान रखना
इक सवेरे ने कहा है
उस सवेरे के कहे की
शब्दधर्मा गन्ध हूँ मैं !