Last modified on 23 मार्च 2017, at 09:08

ज्वालतृषा / अमरेन्द्र

मैं तुमसे क्यों रूठूंगा या गाली कोई निकालूँ
मैं तो ऋणी तुम्हारा हूँ, इस योग्य बनाया तुमने
तम की खाई से उठ कर अब शिखर लगा हूँ चुमने
संभव है कि नील गगन का विस्तृत आलय पा लूँ ।

अगर नहीं जो रौंदा होता तुमने मेरे मन को
अगर नहीं जो घोला होता प्राणों में विष-माहुर
सच कहता हूँ आग जेठ में मिलता नहीं ये छाहुर
बहुत तपा, तो पाया हूँ मैं इस सावन के घन को ।

कोई भीष्म नहीं होता है, बिना तीर पर सोए
रचता है इतिहास, तीर से जो भी जहाँ बंधा है
गीता वही तो कह सकता है जिसका कण्ठ सधा है
उसको है धिक्कार ! सूली को देख सेज पर रोए ।

बरसाओ कुछ और आग, कुछ और अभी तपना है
क्या बतलाऊँ इस मन में वह कौन बड़ा सपना है ।