Last modified on 11 मई 2010, at 13:15

झपकीं मेरी भी आँखें / लीलाधर मंडलोई

मैं दादर के इलाके में निकला कि इस तरह
निकलना कब का बंद हुआ
ऑंखों के सम्‍मुख दूर तलक जाड़ों में जन्‍में
बीज और घऊरा के पेड़ों के माथों पर
सफेद झूमती बेलों का जीवित छायाचित्र
इतना जीवित था मानो असंख्‍य श्‍वेतकेशी बुजुर्ग
अलस्‍सुबह चहलकदमी को निकल पड़े हों

दूर कहीं से चीतलों ने गुहारा
दृश्‍य में मैदान के उस बाजू दसेक जंगली मुर्गियों थीं
जो हिरनों के पॉंवों के आर-पार दौड़ रही थीं और
चोंच आकाश की ओर किए आवाजें निकाल रही थीं
मैं जैसे अव्‍यक्‍त आनंद में भरा जाता था देखता

सामने बीस-पचीसेक लंगूरों का समूह था
अपने दिन के लिए उछलकूद में तैयार होता
उनके पड़ोस में एक मादा चीतल थी
जो चरने की जगह पर अपने छौने के
एकदम नजीक और इतनी सचेत थी कि
कन्‍हर के लिए तैयार होते भविष्‍य पर गर्वोन्‍नत्‍त

तभी बाघ की आहट पर पशुओं की भागमभाग ने
जंगल को जैसे आकंठ घेर लिया
आहट से बाहर एक भव्‍य बाघ दृश्‍य में नमूदार जो
मस्‍त चाल में बंजर नदी की सीध में हुआ
पशुओं ने रास्‍ता छोड़ उसका स्‍वागत किया
वह ठीक नदी के किनारे था पत्‍थरों पर अगले पॉंव टिकाए
अगले ही क्षण वह नदी में दाखिल हुआ
और उसकी कोमल जिव्‍हा ने जल स्‍पर्श किया
अलौकिक आनंद में डूबे थे नदी और बाघ

तृप्‍त हो उसने आसमान की तरफ चेहरा उठाया
ऑंखें जैसे धन्‍यवाद में झपकीं
झपकी मेरी भी ऑंखें.