अपनी बुझती काँगड़ी को
कुरेद कर
ढूँढ़ती है आग हुक्के के लिए
और धीमे-धीमे खींच कर
दो-चार लम्बे कश
बूढ़े को दे देती है नली
इत्मीनान से ताकती हुई
सामने का सूना ठण्डा फैलाव।
झरते हैं पके पत्ते
सिन्दूरी चिनारों से
भरते हुए
दोनों का अकेलापन।
(1985)