पर्वतमालाओं में उस दिन तुमको गाते छोड़ा,
हरियाली दुनिया पर अश्रु-तुषार उड़ाते छोड़ा,
इस घाटी से उस घाटी पर चक्कर खात छोड़ा,
तरु-कुंजों, लतिका-पुंजों में छुप-छुप जाते छोड़ा,
निर्झरिनी की गोदी के
श्रृंगार, दूध की धारा,--
फेंकते चले जाते हो
किस ओर स्वदेश तुम्हारा?
लतिकाओं की बाहों में रह-रह कर यह गिर जाना!
पाषाणों के प्रभुओं में बह-बह कर चक्कर खाना,
फिर कोकिल का रुख रख कर कल-कल का स्वर मिल जाना
आमों की मंजरियों का तुम पर अमृत बरसाना।
छोटे पौधों से जिस दिन
उस लड़ने की सुधि आती
तप कर तुषार की बूँदें
उस दिन आँखों पर छातीं।
किस आशा से, गिरि-गह्वर में तुम मलार हो गाते,
किस आशा से, पाषाणों पर हो तुषार बरसाते,
इस घाटी से उस घाटी में क्यों हो दौड़ लगाते,
क्यों नीरस तरुवर-प्रभुओं के रह-रह चक्कर खाते?
किस भय से हो, वन--
मालाओं से रह-रह छुप जाते,
क्या बीती है, करुण-कंठ से
कौन गीत हो गाते?
रचनाकाल: जबलपुर सेन्ट्रल जेल-१९३१