झील का निर्जन किनारा
और वह सहसा छाए सन्नाटे का
एक क्षण हमारा ।
वैसा सूर्यास्त फिर नहीं दिखा
वैसी क्षितिज पर सहमी-सी बिजली
वैसी कोई उत्ताल लहर और नहीं आई
न वैसी मदिर बयार कभी चली ।
वैसी कोई शक्ति अकल्पित और अयाचित
फिर हम पर नहीं छाई ।
वैसा कुछ और छली काल ने
हमारे सटे हुए लिलारों पर नहीं लिखा ।
वैसा अभिसंचित, अभिमंत्रित,
सघनतम संगोपन कल्पान्त
दूसरा हमने नहीं जिया ।
वैसी शीतल अनल-शिखा
न फिर जली, न चिर-काल पली,
न हमसे सँभली ।
या कि अपने को उतना वैसा
हमीं ने दुबारा फिर नहीं दिया ?
ढाकुरिया झील, कलकत्ता (मोटर में जाते हुए), 29 नवम्बर, 1959