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झील - १ / नरेश अग्रवाल

झील का पानी बहता नहीं
बंधा रहता है इस कोने से उस कोने तक
और शांत हवा में
अब तक टूटने वाले पत्ते भी
महसूस करते हैं सुरक्षित अपने आपको
इसलिए शाम तक तट पर बैठा हुआ
देखता रहता हूं इस झील को चुपचाप
जिसे घेरे हुए चारों ओर से
छायादार पेड़
और छोटे-छोटे पहाड़।
सूरज डूबोता है
इसमें अपने आप को
और निकाल लेता है स्वच्छ करके
मैं भी उसी तरह अपनी आंखों को
और लौटता हूं जब
महसूस करता हूं
मैं भी झील ही हूं
निर्मल और शांत
अनेक दिनों तक।