कातिक कुआर की भोर-किरण नहीं फूटी अभी,
बाँह हवा यह छेदती पग रेत लगी,
झउआ-सी छाती की हड्डियाँ रे धनी, डोल रहीं
डोलता दिल तुम्हें देख ’बताओ तुम कौन अरी !’
’झउआ के फूल हम लोग’, सुन्दरी एक बोल उठी ।
’पाला से हमें नहीं डर, बटोही’, सुन सब हंस दीं ।
’गांव कहाँ रे धनी, बास कहां रे, तुम कहाँ रहती ?’
’झउआ के फूल हम लोग’, सुन्दरी वही बोल उठी,
’गांव के बाहर झोंपड़ी झाड़ी-झाड़ बसी
झाँके न कोई उस ओर, बटोही’, सुन सब हंस दीं ।
’खातीं नमक-तेल बोर रे मडुआ की रोटी कड़ी,
सुन्दर सुघर तेरे अंग मुझे है अचरज रे अति ।’
’झउआ के फूल हम लोग’, सुन्दरी वही बोल उठी,
’नीरस रेत में प्राण, बटोही’, सुन सब हंस दीं ।
’चलो, चलो, मालिक के खेत, आ जाए वह सखी न कहीं’
जल्दी-जल्दी मुंह निज पोंछ किलकती भाग चलीं ।
थाम लिया हाथ मैंने उस चुलबुली का, ’री ठहर धनी,
एक क्षण बोल मृदु बोल, भला रे ऐसी कैसी जल्दी,
लाल बादाम ऐसे ओठ शहद रंग सूरत भली,
मिसरी ऐसी तैरतीं आँखें रे बर्र ऐसी भौंह-बरौनी ।
शरबत ऐसा तेरा रूप दीपक ऐसी ज्योति जगी,
चलो, करो घर उजियाला, रे बाग़-बाड़ी हरी रे भरी ।’
’मालिक की रे ज़मीन शकरकन्द-जंगल-भरी,
उसको कमाने हम जाएँ, छोड़ो रे हटो, ढीठ बटोही ।’
’मिट्टी-रंग तेरी यह साड़ी, रे पत्ता-रंग चोली सजी,
कन्द-रंग तेरे घन केश रे और नयनों की पुतली !
आओ, बैठो, तुम्हें देख मालिक बिसरेगा कन्द की सुधि ।’
’धत्’ बोली लज्जित प्रियंवदा हाथ झटक भगी,
कर में उठाए साड़ी-चून मचकती रे हरिणी-सी ।
फिर एक झउआ के पास कुछ-एक क्षण खड़ी हो रही,
रंज से अधिक काली भौंहें रे आँखें हंसी से उजली ।
बंकिमा ओठों की लाल दुलार-भरी रंज-भरी
पतले घूँघट में ज्यों रूप निखरता है सौ गुना ही ।
’झउआ के फूल हम लोग’, रे झउआ की सूखी लकड़ी,
पीठ बने धोबिया का पाट मालिक यदि देख ले अभी ।
बाबा होंगे मालिक के द्वार बहारे राह अकेले अभी ।
घूरते हो क्या इस ओर रे ऐसे बड़े ढीठ बटोही !’
’झउआ के फूल श्वेत लाल’ वाणी यह मेरे मुँह से कढ़ी,
’उषा और प्रात, प्रतीक नए दिन के री सखी ।’