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टहनी / विमल राजस्थानी

मैं टहनी हूँ पारिजात की
प्रथम-प्रथम मुझको ही चूमे अरुण किरण स्वर्णिम प्रभात की
मैं टहनी हूँ पारिजात की

भोला पंछी बात न माने
स्वर्ण-किरण को तिनका जाने
ज्यौं-ज्यौं चंचु खोलकर भागे
पंछी पीछे, किरणें आगे
चंचु खोल ज्यौं वन-वन लाँघे एक बूँद के लिये चातकी
मैं टहनी हूँ पारिजात की

मुझ पर पंछी झूला झूलें
चहकें, फुदकें, सुध-बुध भूलें
ठोर-ठोर से जब मिल जाती
मैं झुक, झूम-झूम इठलाती
ठहर-ठहर कर फर-फर फहरे हरी चुनरिया नये पात की
मैं टहनी हूँ पारिजात की

सम्मुख नील झील का दर्पण
छाया लगती सहज समर्पण
जल-पंखों पर तिरते बादल
बज उठती बूँदों की पायल
ले जाते हैं मेघ उड़ाकर चादर तारों जड़ी रात की
मैं टहनी हूँ पारिजात की

जब-जब मलय-झकोरा आये
मेरा अंग-अंग गदराये
झिमिर-झिमिर-झिम बदरा बरसे
अमृत झरे पूनम-गागर से
तारों से चर्चा करती हूँ वन-वैभव की बात-बात की
मैं टहनी हूँ पारिजात की

पात-पात जब झर जाते हैं
सब शृंगार उतर जाते हैं
पंछी लेते नहीं बसेरा
हट जाता बाँहों का घेरा
नील झील के दर्पण में परछाँही हिलती नग्न गात की
मैं टहनी हूँ पारिजात की

-25.7.1976