Last modified on 19 नवम्बर 2017, at 02:30

टाण्ड पर चरखा / विपिन चौधरी

पुरानी चीज़ों ने समेट लिया अपना दाना-पानी
घूमना बन्द कर बना ली हम से दूरी
उनसे स्नेह बना रहा तब रही वे हाथों की दूरी पर
हाथों से छूटते ही सीधे गर्त की दिशा में चली
उनसे सिर्फ़ यादों को माँझने का काम ही लिया जा सका

इस ख़याल को और पुख़्ता बनाया,
अन्धेरे ओबरे में रखे
आँखों से दस ऊँगल की ऊँचाई पर रखे उस चरखे ने
ढेर सारे लकड़ी के पायों,जेली और घर की दूसरी ग़ैरज़रूरी हो चुकी चीज़ों के साथ

न जाने कैसा बदला लिया था हमने
पुरानी बेकाम की चीज़ों को
धूल के हवाले करके
बिना बदले का अहसास दिलवाए
आत्मा के हर कोण पर यादों की फाँसें चुभाकर
वे चीज़े भी लेती रही हमसे बदला

ज़्यादा दिनों तक जो चीज़ें हमारे जहन में अटकी रहीं
 जो धीरे-धीरे ना बुझने वाली प्यास में तबदील हो ही जाती हैं

तो चरखे की आँख में पानी था, जाले और ढेर सारी मकड़ियाँ
मगर अब भी वह बहुत कुछ याद दिला सकता था
उसने दिलाया भी,

गावँ के घर का लम्बा-चौड़ा आँगन, बीस बीघा खेत, झाड़ियाँ, बटोडे,
चक्की, बिलोना, आधा चाँद, लुका-छिपी,
मँगलू कुम्हार के हाथों बनी बाजरे की खिचड़ी जिससे बचपन का सबसे घना हिस्सा आबाद था
सूरज के देर से छिपने और जल्दी ढल जाने वाले और कभी उदास न होने वाले दिन
हँसी ठट्ठे के वे रँग जो अब तक नहीं छूट पाए है
जीवन के पक्केपन से हमारी यारी-दोस्ती नहीं हुई थी तब
उन दिनों हमारी नाक इतनी लम्बी नहीं थी जो गोबर की महक से टेढ़ी हो जाए
तब गाय और बछड़े का रिश्ते का नन्हा अंकुर कहीं भीतर पनप जाया करता था
जो दूध दुहते वक़्त और भी मुखर हो उठता था
उस आकर्षण में बँधे हम देर तक बछड़े को अपनी माँ का दूध पीने देते
और घरवालों की डाँट खाते, यह हर रोज़ का क्रम था
पँचायत की ज़मीन पर लगे बेरी के पेड़ों पर उछल-कूद दोहरा-तिहरा मज़ा दिया करती थी

आज की तरह चरखा हमें
चौंकाता नहीं था
मन हरा कर देता था
उस हरेपन की हरितिमा के घेरे में चक्की पर गेहूँ पीसती माँ और भी नज़दीक आ जाती थी
कढ़ावनी से मक्खन निकालती बुआ से लस्सी ले कर हम खेत-खलिहानों की ओर निकल पड़ते थे
पाईथागोरस की थ्योरम और ई० ऐम० सी० सकेवर का फ़ॉर्मूला याद करते-करते हम
अपने रिश्तेदारों की कूटनीतियाँ स्वाहा कर देते थे

चरखे के साथ ही माँ के वे दिन भी याद आए
जब वह अपने दुख को इतनी मुस्तैदी से रूई में लपेट कर सूत की शक़्ल दे दिया करती थी
कि हम लाख कोशिशों के बाद भी उसकी आँखो से आँसू का एक भी कतरा नहीं ढूँढ़ पाते थे
अब तो वह दुख तो इतना आगे निकल गया है कि उसे पहचान पाना मुमकिन नहीं
मुमकिन है तो बस जीवन और बीते वक़्त की जुगलबन्दी की वे यादें

चाह कर भी बचपन और आज की उम्र का फ़ासला गुल्ली डण्डे से पूरा नहीं किया जा सकता
ना ही चरखे को वही पुराना स्थान दिया जा सकता है
हमारी चेतना के ढेर सारे धागे चरखे से जुड़े होने के बावजूद
उसे नीचे उतारने के ख़याल से ही यह सोच कर कँपकँपाते हैं
कि कहाँ रखेगे इस चरखे को
पाँचवे माले के सौ गज के फ़्लैट में
नहीं कतई असम्भव नहीं

फिर से चरखा यहीं छूट जाता है
फिर कोई हम-सा ही अभागा
इस चरखे के ज़रिए यादों की धूल साफ़ करेगा
पर इसमें सन्देह है कि यादों की धार आज-सी ही तेज़ रह पाएगी।