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टापू पर कल राख / कुमार रवींद्र

ख़बर यही है
इधर हमारे ख़ुशबू वाले टापू पर
                     कल राख झरी है

होना ही था यही किसी दिन
कब तक बचता यह बेचारा
गई-रात भर झुलसी-सूखी
इसके मीठे जल की धारा

बड़े पीर की
जो रहता है झील किनारे
                         आँख भरी है

आदिम केसर-वन फूले थे
युगों-युगों टापू पर अपने
इसी द्वीप पर सबसे पहले
पले-पुसे ऋषियों के सपने

हमने देखा
कल सपने में
छत पर सबके आग धरी है

टापू की महिमा सब बीती
लोग झील को भूल चुके हैं
रथ जितने भी नए समय के
वे सब सागर-पार रुके हैं

और ख़बर है
सिंधु-पार के
शहज़ादों की बात ख़री है