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टिहरी पड़ी डुबानी / ऋषभ देव शर्मा

एक बार बहके मौसम में कर बैठा नादानी
रह रह कर बह बह जीवन भर कीमत पड़ी चुकानी

एक कटोरी दूध लिए कब से लॉरी गाता हूँ
जब से चरखा कात रही है चंदा वाली नानी

जानी कैसे लिख लेते सब रोज नई गाथाएँ
इतने दिन से जूझ रहा मैं पूरी न एक कहानी

साँझ घिरे जिसकी वेणी में बरसों बेला गूँथी
पत्थर की यह चोट शीश पर उसकी शेष निशानी

एक शहर था, चाहा पहल थी, आबादी थी, घर थे
नई सदी में नदी रोककर, टिहरी पड़ी डुबानी