वक़्त की फिसलन ने
कुछ कगार बनाए
कुछ लहरें उद्दाम
किनारे सपाट
और कुछ पर्वत वीतरागी
मैंने उसे कहा समंदर अधीर
और तुम कह उठे, उहूँ!
यह है उत्तर से उठते
कज़रारे बादलों का सैलाब कोई!
उस समंदर ने धरा पर
और तुम्हारे आवारा बादल ने
खिले नीले आसमानी कैनवास पर
एक चित्र बनाया हथेली की छुअन का
साँसों की आँखों का
और उनसे बरसते नेह का!
कुछ संस्मरण लिखे
चूमती ख़्वाहिशों के
और लौट गया फ़िर
स्मृतियों की नीली चादर ओढ़ा
दूर रेतीले धोरों में
मृग-मरीचिका बन!
मैं बुदबुदाती रही
नीम ख़ामोशी में
मन समंदर
बुदबुद आशाएँ
सीपी में मोती जज़्बात
और प्रेम!
ज्यों पानी या कि
पानियों पर लिखी इबारत कोई!
(ये चिट्ठियाँ बीते बरस टीबों पर लिखीं गयी थीं सीली हवा में भीग-भीग, बादलों के संग अब अरावली पर ये जम-सी गई हैं।
लिपि कोई जोगी ही पढ़ पाएगा, यह तय है।)