Last modified on 28 अगस्त 2012, at 12:17

टूटने की गूँज में / नंदकिशोर आचार्य

नहीं, अब कच्चा नहीं,
पकने लगा है हरा
भूरेपन की ओर बढ़ता हुआ....

एक दिन झर जाऊँगा चुपचाप।

कभी जंगल में भटकता पाँव कोई
पड़ेगा मुझ पर
मेरे टूटने की गूँज में
पहचानता खुद को।

(1983)