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टूटने से ज्यादा / संगीता गुप्ता


शाम ढले
अनमनी, थकी लैटती है
दफ्तर से

हर बार की तरह
उमग कर आज
नहीं मिलता बेटा
आंखें चुराता
असहजता को
सहज बनाने में जुटा दिखता

टिफिन का डिब्बा
पर्स सहेज कर
साड़ी का पिन खोलते हुए
ठिठक कर रह जाती है
ठीक बीच से
चटक गया है आईना
ड्रेसिंग टेबल की तरफ
देखते हुए चीख पड़ती है वह


" यह क्या किया तुमने "
आ खड़ा होता है
सहमा सा सिर झुकाए
नन्हा अपराधी
- बुदबुदाता - सॉरी मम्मा
गेंद जा लगी शीशे पर बस ...
चटका ही तो है
टूटा नहीं पूरा
क्हते - कहते सुबक पड़ा है बेटा

डांट नहीं पाती
खो जाती है खुद में
बोल पड़ती है मुंह के भीतर ही
तुम्हें कैसे समझाऊँ
टूटने और चटकने का फर्क

</Poemमोटा पाठ>