कल्पनाक कमलिनी मौलायल, मुरझायल हिय हरसिंगार,
गढ़ब कोना काव्यक नव माला, हृदय तंत्र केर टूटल तार।
शुभ संवादक अमिय बुन्न बिनु, कर्णपटल पर चट्ट पड़ल,
उर उद्यान मरुस्थल बनलै, मन तुरंग नहि सुनय कहल।
विचलित चित्त चहुदिशि दौड़ै जनु भक्ष्य हेरैत मत्स्य बेहाल,
छै मोहार पर बंसी पथने, घात लगौने काल कराल।
तिमिरक कारी चद्दरि लेपटल, बैसल कोनटा धऽ दुर्दैव,
अट्टाहास करै जे छन-छन, भालरि सन तन कँपय सदैव।
श्रीहत छथि दिनमान जीवनक, अन्तर्जगतक चान मलान,
धधकि रहल चिंताक चिता सँ, मानस मधुवन बनल मसान।
फूजल नयन देखय नित सपना, कल्कि रूप धरि औथिन्ह राम,
त्रिविध ताप-संताप मेटाएत, आभामय होएत सभ ठाम।