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टूटे हौसले / राजीव रंजन

जिन बादलों को हरदम
हमने बरसते देखा था।
पहली बार उसे पानी के
लिए तरसते देखा है।
आकाश में जिसे मिनटों
में मीलों उड़ते देखा था।
पहली बार उसे जमीन
पर रेंगते-सरकते देखा है।
जिसे आज तक दूसरे को
हँसाते मुस्कुराते देखा था।
पहली बार उसे दामन में
मुँह छिपा सिसकते देखा है।
जिसे हमने पतझड़ में
भी खिलते देखा था।
पहली बार उसे बसंत में
भी मुरझाते देखा है।
जिससे टकरा तुफानों
को बिखरते देखा था।
पहली बार हवा के एक
झोंके से भरभराते देखा है।
जिस महफिल में मैंने
चाँद-सितारों को सजते देखा था।
पहली बार वीरानी में
उसे उजड़ते देखा है।
बाहर नहीं, अन्दर ही
किसी ने लुटा है, तभी
हौसलों को टूट तिनका-तिनका
आज बिखरते देखा है।