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टूट गये सब कृत्रिम बन्धन / अज्ञेय

 टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!
नदी लाँघ कूलों की सीमा, अर्णव-ऊर्मि हुई, गति-भीमा;
अनुल्लंघ्य, यद्यपि अति-धीमा है तुझ को मेरा आवाहन!
टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!
छिन्न हुआ आचार-नियन्त्रण-कैसे बँधे प्रणय-आक्रन्दन?

दृष्टि-वशीकृत उर का स्पन्दन तुझे मानता है जीवन-धन!
टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!
देय? स्वयं ही हूँ मैं दाता! फिर तेरा संकेत बुलाता!
बिना लुटाये कोई पाता? लो! देती हूँ अपना जीवन!
टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!

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