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ठिठुरै छै दिन-रात /रवीन्द्र चन्द्र घोष

गाछी के फुनगी पर देखोॅ
किरण केन्होॅ पसरी-पसरी केॅ
इतरावै छै छितरावै छै
पत्ता पर ससरी-ससरी केॅ
गाछी केॅ ठंढा लगलोॅ छै
धूपोॅ में सेकी रहलोॅ छै
ठंढा एतना पड़ी रहलोॅ छै
देह-हाथ काँपी रहलोॅ छै।

जीवोॅ केॅ तेॅ चैभे करियोॅ
ओढ़ै खातिर कम्बल-लिहाफ
मतुर गरीबी एतना छै कि
नाँगटे ठिठुरै छै दिन-रात।