ठेंठ सूनापन बकुल-सा झर रहा।
फुनगियों पर टँग गई
असहाय पीली धूप
निपट बलि के पात्र-सा
गुमसुम खड़ा है रूप।
एक कमरे से अलग घर
दूसरे को कर रहा।
बेअसर साबित हुईं
तब, ले दुआएँ कौन?
भिक्षुणी-सी पास से
गुज़री हवाएँ मौन;
मारनेवाला समय चुपचाप
क्षण-क्षण मर रहा।
मसीहा मौसम कहाँ,
किस साधना में लीन?
आज दाता क्यों हुआ है
चायकों से दीन?
कर्ज़ जो छोड़ा गया था ब्याज उसका भर रहा।
ठेंठ सूनापन बकुल-सा झर रहा।