Last modified on 10 अगस्त 2012, at 15:09

डरौना / अज्ञेय

चिथड़े-चिथड़े
टँगा डरौना
खेत में

ढलते दिन की
लम्बी छाया
छुई-
कि बदला
जीते प्रेत में।

घिरी साँझ
मैं गिरा
अँधेरी खोह-
यादें-
लपका
बटमारों का एक गिरोह!

शरण वह
प्रेत डरौना
चिथड़े-चिथड़े।

नयी दिल्ली, 8 नवम्बर, 1979