डर है
शायद तुम तक मेरी आवाज न पहुंच पाए
मीलों फैले इस नगर के सीमांतों पर
टकरा कर, टूट कर
मेर हर शब्द बिखर जाए
डर है
शायद तुम बहुत बदल गई हुई हो
तुम्हारे दुपट्टे की कोरों में लिपटी अंगुलियों में
जिंदगी ने छोडी़ न हो
वह अल्हड़ बेफिक्री
मालूम नहीं
चांद का अक्स अब तुम्हारी आंखों में
कैसा दिखता है?