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डर का डर / प्रमोद कुमार

डर तरह-तरह के डिजाइनों में उपलब्ध थे,
बाज़ार उन्हीं के बल खड़ा था,
                             
पिछड़ जाने का डर
सब कुछ चला रहा था
उसमें गति इतनी
कि कई पहिए गले रेतते निकल जाते, पर दिखते नहीं,
                        
भविष्य के डर का भविष्य उज्ज्वल था
उसे पढ़ानेवाले विद्यालय बीमा के सफल व्यापारी थे
धर्म का डर
धर्म पर सवार था,
उसकी भव्य मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्ठा हो रही थी,
वहाँ मुल्ले और पंडित साथ-साथ मुस्काते
पूजा का वही एक स्थल साम्प्रदायिक झगड़े से मुक्त था,

डर के अनुसार सबकी औक़ात थी
छोटे डर वाले छोटे लोग थे
शोभा-यात्रा में पीछे-पीछे
एड़ी उचकाते चलते,
ऊँचे डर वाले ऊँचे लोग
सिर पर उसका ताज़ रख आगे बढते
आम लोगों में ख़ूब प्रेम से डर के बायने बाँटते,
देश में प्रेम के लिए वह मुद्दा निरपराध था,

डर में आकंठ डूबे लोग
जीवन की गहराई पर हँसते-फिरते,
हँसने की एक वह जगह बेरोकटोक थी,

बाज़ार, प्रेम, हँसी, धर्म, कला पर कब्ज़े के बाबजूद
डर डरा हुआ था
अपने को बेख़ौफ़ अनुभव करने की
उसके पास कोई निर्जन जगह न थी ।