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डायरी में बारिश / अरुण आदित्य

एक
सोलहवीं बारिश के बाद
आदमी किसी बारिश में नहीं
बारिश की स्मृति में नहाता है ।
  
दो
 
हर आदमी अपनी बारिश में
अकेले नहाता है
 
बारिश में नहाते हुए
कोई अकेला कहाँ रह पाता है
कितने ही क़िस्से भीगते हैं
अकेले आदमी के साथ ।
  
तीन
 
तुम्हारी आँखों में घुमड़ रहे
बादल के भीतर जो भाप है
मुझे पता है, उसमें कितना ताप है ?
 
चार
 
धरती के तपते चेहरे पर
ठण्डे छींटे मार रहा जो बादल
वह समुद्र के खौलने से बना है
 
पर हुक़्म है हाक़िम का
कि ठण्डी-ठण्डी फुहारों के बीच
खौलने की बात भी करना मना है ।
  
पाँच
 
सपनों के बादल न सपनों की बून्दें
सपनों के झूले, न सपनों के मीत
 
पर सपने की माया
कि स्वप्न-भर नहाया ।
  
छह
 
बारिश जो लाती थी ख़ुशियों के ख़त
कभी-कभी क्यों लेकर आती है आफ़त
जानते हैं सब
पर मानते हैं कब ?
  
सात
 
रात भर मेघ झरा है
धरा का स्वप्न हरा है
हरे-भरे में भूल गया मैं
मेरा सपना कहाँ धरा है ?