Last modified on 11 जून 2010, at 01:15

डैफ़ोडिल / हरिवंशराय बच्चन


डैफ़ोडिल, डैफ़ोडिल, डैफ़ोडिल-

मेरे चारों ओर रहे हैं खिल

मेरे चारों हँस रहे हैं खिल-खिल;

इंग्‍लैंड में है बसंत- है एप्रिल।

इनका देख के उल्‍लास

तुलना को आता है याद

मुझे अजित और अमित का हास

जो गूँजता है आध-आध मील-

मेरा भर आता है दिल-

डैफ़ोडिल, डैफ़ोडिल, डैफ़ोडिल-

जो गूँजता है हजारों मील,

मैं उसे सुनता हूँ यहाँ,

हँस रहे है वे कहाँ-ओ, दूर कहाँ!

बच्‍चों का हास निश्‍छल, निर्मल, सरल

होता है कितना प्रबल!


सृष्टि का होगा आरंभ,

मानव शिशुओं का उतरा होगा दल

पृथ्‍वी पर होगी चहल-पहल।

आल-बाल जब बहुत से हों साथ

पकड़ के एक दूसरे का हाथ

हँसी की भाषा में करते हैं बात।

उस दिन जो गूजा होगा नाद

धरती कभी भूलेगी उसकी याद?

उसी दिन को सुमिर

वह फूल उठती है फिर-फिर

फूला नहीं समाता उसका अजिर।

आदि मानव का वह उद्गार

निर्विकार,

अफसोस हज़ार,

इतनी चिंता, शंका, इतने भय, संघर्ष‍ में

गया है धँस,

कि सुनाई नहीं पड़ेगा दूसरी बार;

अफसोस हज़ार!


इतना भी है क्‍या करम

उसकी बनी है यादगार

डैफ़ोडिल का कहाँ-कहाँ तक है विस्‍तार!


हरे-हरे पौधों

हरी-हरी पत्तियों पर

सफ़ेद-सफ़ेद, पीले-पीले,

रुपहरे, सुनहरे फूल सँवरे हैं,

आसमान से जैसे

तारे उतरे हैं।

आता है याद,

कश्‍मीर में डल पर

निशात, शालिमार तक

नाव का सफ़र,

इतने फूले थे कमल

कि नील झील का जल

उनके पत्‍तों से गया था ढँक,

पत्‍ते-पत्‍ते पर पानी की बूँद

ऐसी रही थी झलक,

जैसे स्‍वर्ग से

मोती पड़े हो टपक;

सुषमा का यह भंडार

देख के, झिझक

मैंने अपनी आँखें ली थी मूँद।

बताने लगा था मल्‍लाह,

बहुत दिनों की है बात,

यहाँ आया एक सौदागर,

लोभी पर भोला,

उसे ठगने को किसी का मन डोला,

सेठ से बोला,

ये हैं कच्‍चे मोती- कुछ दिन में जाएँगे पक।

लेकर बहुत-सा धन

बेच दिया उसने मोतियों का खेत

यहाँ से वहाँ तक।

सेठ ने महिनों किया इंतज़ार,

लगाता जब भी मोतियों को हाथ,

जाते वे ढलक।

आखिरकार हार,

भर-भर के आह

वह गया मर;

उस पार बनी है उसकी क़ब्र।

सुंदरता पर हो जाओ निसार;

जो उसके साथ करते हैं व्‍यापार,

उनके हाथ लगती है क्षार।


डैफ़ोडिल का देख के मैदान

वही है मेरा हाल,

हो गया हूँ इस पर निहाल

मिट्टी की यह उमंग,

वसुंधरा का यह सिंगार

आँखें पा नहीं रही है सँभाल,

मेरे शब्‍दों में

कहाँ है इतना उन्‍मेष,

कहाँ है इतना उफान,

कहाँ है इतनी तेजी, ताज़गी,

कहाँ है इतनी जान,

कि भूमि से इनकी उठान,

कि हवा में इनके लहराव,

कि क्षितिज तक इनके फैलाव

कि चतुर्दिक इनके उन्‍माद का

कर सके बखान।

यह तो करने में समर्थ

हुए थे बस वर्ड्सवर्थ;

कभी पढ़ा था उनका गीत,

आज मन में बैठ रहा अर्थ।


पर मैं इसे नहीं सकूँगा भूल,

सदा रक्‍खूँगा याद,

आज और वर्षों बाद,

कि जब अपना घर, परिवार, देस, छोड़

आया था मैं इंग्‍लैंड,

केम्ब्रिज में रक्‍खे थे पाव,

अज़नबी और अनजान के समान,

अपरिचित था जाब हर मार्ग, हर मोड़,

अपरिचित जब हर दूकान, मकान, इंसान,

किसी से नहीं थी जान-पहचान,

तब भी यहाँ थे तीन,

जो समझते थे मुझे,

जिन्‍हें समझता था मैं,

जिनसे होता था मेरे भाव,

मेरे उच्‍छ्वास का आदान-प्रदान-

डैफ़ोडिल के फूल,

जो देते थे परिचय-भरी मुस्‍कान,

प्रभात की चिड़‍ियाँ,

जो गाती थीं कहीं सुना-सा गान,

और कैम की धारा,

जो विलो की झुकी हुई लता को छू-छू

बहती थी मंद-मंद, क्षीण-क्षीण!