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ढलान पर हिनहिनाना / महमूद दरवेश

ढलान पर हिनहिना रहे हैं घोड़े। नीचे या ऊपर की ओर।

अपनी प्रेमिका के लिए बनाता हूँ अपनी तस्वीर
किसी दीवार पर टाँगने की ख़ातिर, जब न रह जाऊँ इस दुनिया में।
वह पूछती है : क्या दीवार है कहीं इसे टाँगने के लिए ?
मैं कहता हूँ : हम एक कमरा बनाएँगे इसके लिए। कहाँ ? किसी भी घर में।

ढलान पर हिनहिना रहे हैं घोड़े। नीचे या ऊपर की ओर।

क्या तीस-एक साल की किसी स्त्री को एक मातृभूमि की ज़रूरत होगी
सिर्फ़ इसलिए कि वह फ़्रेम में लगा सके एक तस्वीर ?
क्या पहुँच सकता हूँ मैं चोटी पर, इस ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी की ?
या तो नरक है ढलान, या फिर पराधीन।
बीच रास्ते बँट जाती है यह। कैसा सफ़र है ! शहीद क़त्ल कर रहे एक-दूसरे का।
अपनी प्रेमिका के लिए बनाता हूँ अपनी तस्वीर।
जब एक नया घोड़ा हिनहिनाए तुम्हारे भीतर, फाड़ डालना इसे।

ढलान पर हिनहिना रहे हैं घोड़े। नीचे या ऊपर की ओर।

अंग्रेज़ी से अनुवाद : मनोज पटेल