Last modified on 23 अगस्त 2012, at 14:01

ढाई आखर / लालित्य ललित


क्या कहूं
कैसे कहूं
क्यों बतलाऊं
क्यों सुनाऊं
तुमको हक़ीक़त
ऐ जमाना
तुम को लगेगा
यह ख़ूबसूरत
अफ़साना
इससे अधिक
कुछ नहीं
शर्माती हुई लड़की
बहुत कुछ सोचती है
बहुत कुछ
आंखें कभी बंद, कभी
खोलती है
दुपट्टा फिराती है
बालों को घुमाती है
मंद-मंद मुस्काती है
कुछ नहीं कहती
केवल
गुनगनाती है
आप को भी दिखे
अगर
ऐसी कोई युवा लड़की
तो समझ लीजिए
यह प्रेम में है
और प्रेम कभी भी
किसी से -
भी हो सकता है
बस यह पंक्ति पढ़ कर
आप भी अपने
उन दिनों
को याद कर
अपनी बेटी को
डांटिएगा नहीं
यही निवेदन है